1970 के दशक के शुरुआती साल ...हम बच्चे थे, छोटे ....😎 लेकिन अपनी कॉलोनी की एक महिला की बहादुरी का एक किस्सा सुना करते थे अकसर...बार बार ...कभी उन के सामने भी कोई न कोई उस किस्से को दोहरा दिया करता ..और इतराते हुए मंद मंद मुस्कुराना भी उन का याद है ...वह रेलवे के एक सैनेटरी इंस्पेक्टर की पत्नी थीं...(पहले हेल्थ-इंस्पैक्टर को इसी नाम से जाना जाता था) - शुक्ला जी बनारस के रहने वाले थे ...एक बार श्रीमति शुक्ला जी जब वहां गई हुई थीं तो उन की सासू मां गंभीर रूप से बीमार थीं, अब मिेले बगैर किसी से कोई सलाह-मशविरा करने का तो सवाल ही न होता था किसी के साथ, उन्होंने जैसे तैसे उस गंभीर हालत में ही अपनी सासू मां को भी अमृतसर की गाड़ी में साथ ही चढ़वा लिया, और सीट पर लेटा दिया.....और वह बेचारी इतनी बीमार थी कि चंद मिनटों में ही उस बुज़ुर्ग महिला को मुक्ति मिल गई ...
दो बरस पहले इस लेखक ने बनाया था यह पोस्टर ...आज इसे ढूंढ निकाला यहां चिपकाने के लिए , फोटो भी मैंने खींची थी और कैलीग्राफी भी लॉक-डाउन के दिनों में ... |
अब आप श्रीमति शुक्ला की मनोस्थिति देखिए, मौके को संभालने की जुगत देखिए कि उस ने उस पर चद्दर डाल दी लेकिन ज़िंदा लोगों से भरे डिब्बे में कोई लाश भी लदी हुई है...इस बात को उन्होंने अमृतसर पहुंचने तक दबा कर रखा, वह यह कैसे रख पाईं मुझे आज भी याद है जिस तरह से लोग उन के मुंह से वर्णन सुनते थे, हम हैरान रह जाते थे ....टीटीई आया, उसको बता दिया कि मां हैं, सोई पड़ी हैं, चलिए ...दो तीन घंटे और बीत गए ....अगर सोया हुआ यात्री के शरीर में कोई हिल-ढुल नहीं हो रही तो लोगों को एक बात करने का मौका मिल जाता है, शक सा हो जाता है.....अन्य यात्री पूछते तो उन को समझा-बुझा देना कि मां हैं, खासी बीमार हैं ....यह तो श्रीमति मिश्रा के लिए तो बहुत आसान था। सफर चलता रहा ...अभी भी 18-20 घंटे का रास्ता है बनारस से अमृतसर तक का ...वह सोई नहीं, सचेत रह कर उस पार्थिव शरीर की रखवाली करती रही ...खैर, ये बातें ज़्यादा छुपती कहां हैं.....अंबाला आते आते टीटीई फिर आ गया कि माजरा क्या है ...इन को क्या है....उसने कहा कि ये तो लगता है चल बसीं हैं ....इतना सुनने पर उसने टीटीई की क्लास ले ली कि ऐसे आप कैसे किसी के बारे में कह सकते हैं। ज़माना सीधा था, जब उसने टीटीई को ही हड़का के रफ़ा-दफ़ा कर दिया तो डिब्बे के दूसरे लोगों की जिज्ञासा को शांत रखना कौन सी बड़ी बात थी ...
दरअसल बात यह थी कि यात्री डिब्बे में किसी लाश को ले जाना मना है, और अगर किसी को यह पता चल जाता कि वे लोग एक लाश के साथ सफ़र कर रहे हैं एक ही डिब्बे में ...तो पता नहीं डिब्बे में हड़कंप मचता या न, लेकिन श्रीमति मिश्रा को फ़ौरन अगले स्टेशऩ पर उतार दिया जाता ...खैर, वह महिला ने अपनी प्रेसेंस ऑफ माईंड से अपनी सास के पार्थिव शरीर के अमृतसर स्टेशन तक पहुंचा दिया ...आगे का सारा इंतज़ाम उस सैनेटरी इंस्पैक्टर ने संभाल लिया जो वहीं, उसी स्टेशन पर तैनात था...
मुझे आज यह बात याद आई सुबह सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था ...उसने एक न्यूज़ स्टोरी थी कि मध्य रेल ने पिछले तीन बरसों में 1500 के करीब मृत लोगों को उन के मुलुक (किसी के गांव, कसबे के लिए बंबईया भाषा) पहुंचा दिया ...और उसमें उस की सारी प्रक्रिया बताई गई थी ...किस तरह से एजैंट लोग ढ़ेरों औपचारिकताएं कैसे आसानी से पूरी करवा के पार्थिव शरीर को उसके गन्तव्य स्टेशन की तरफ़ रवाना कर देते हैं...एजैंटों के रेट फिक्स हैं ....अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि जो एजेंट लोग भी हैं, इन के साथ भी टैग-लाइन - ज़िंदगी के साथ भी, ज़िंदगी के बाद भी....जोड़ी जा सकती है ...खैर, जो डिटेल्स हैं, वह तो आप इस खबरों में पढ़ ही लेंगे।
इसे अच्छे से पढ़ने के लिए आप को इस फोटो पर क्लिक करना होगा... |
मेरे लिए भी यह एक अहम् जानकारी थी ...अभी मैंने खबर का शीर्षक ही पढ़ा तो मुझे लगा कि यार, मिट्टी तो मिट्टी है ..उसे भी मुलुक पहंचाने के लिए पेचीदगी भरा इतना रास्ता तय करना ....औपचारिकताओं से भरा हुआ...सरकारी विभाग के अपने नियम-कायदे होते ही हैं, फिर यह भी ख्याल आया कि साधन-संपन्न लोग तो हवाई-जहाज़ से सात समंदर पार से अपने परिजनों के पार्थिव शरीर ले आते हैं ....और वैसे भी मानवीय संवेदनाओं के आगे बहुत से तर्क क्षीण पड़ जाते हैं ...जैसे मेरे भी ज़ेहन में जो बाबा बुल्ले शाह की वह काफ़ी आ रही थी, मिट्टी उत्ते मिट्टी डुल्ली (मिट्टी पर मिट्टी गिरी)....वह गायब हो गई इस न्यूज़-स्टोरी को पढ़ते पढ़ते।
मानवीय संवेदनाओं की बात है कि सैंकड़ों-हज़ारों कोसों दूर बैठे परिजन कैसे अचानक अपने सगे-संबंधी के आखिरी दीदार करने आएं, रेलवे की इस अत्यंत मानवीय सुविधा की वजह से एक पार्थिव शरीर ही अपने गांव पहुंच जाता है ...और जो बात हैरान करने वाली है कि रेलवे विभाग इस के लिए सिर्फ़ एक हज़ार से डेढ़-हज़ार वसूलता है लेकिन सामान ढोने के जिस डिब्बे में इस शव को रखा जाता है उस में किसी और माल की ढुलाई नहीं की जाती उस दिन ...और इससे रेलवे को उस दिन माल ढुलाई के लिए मिलने वाले 30 हज़ार रूपये की राशि से महरूम होना पड़ता है ..
टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई 18 जुलाई 2023 |
लेकिन यही तो है देश की इस लाइफ-लाइन का सामाजिक दायित्व -यह दायित्व बहुत भव्य है, लोकल गाड़ी में बैठे बैठे कईं बार सोचता हूं कि दस-बीस रूपये खर्च के बंदा बम्बई के एक कोने से दूसरे कोन तक पहुंच जाता है, खोमचे वाले, सब्जी वाले, दफ्तर तक खाना पहुंचाने वाले (मुंबई के डिब्बे वाले)....कैसे नियत समय पर अपने ठिकाने पर पहुंच जाते हैं ....बरसात हो या हो तूफ़ान....देश की यह लाइफ-लाइन का ही कमाल है कि चौबीसों घंटे देशवासियों के दुःख सुख में उस को अपने साथ रहने का अहसास दिलाती है ...ज़िंदगी के साथ भी जैसे हम अकसर देखते हैं और उस के बाद भी जैसा आपने ऊपर पढ़ लिया...
और हां, श्रीमति मिश्रा जी से बात शुरु की थी, उन से ही खत्म करेंगे ....जब सैनेटेरी इंस्पैक्टर की रिटायरमैंट हुई तो सरकारी आवास खाली तो करना ही थी...जब मां और उन की सहेलियां श्रीमति मिश्रा से मिलने गईँ तो वह आंगन में लगे एक तंदूर को तुड़वा में लगी हुई थीं, ...मां ने कहा- बहन जी, इसे क्यों तोड रही हैं, रहने दीजिए, जो भी आएगा, इस में लगी रोटीयां खाएगा....मां ने बताया कि उसने इस का कोई जवाब न दिया ...लेकिन जैसे ही तंदूर का किला पूरी तरह से धवस्त हो गया तो अपने बेटे को थोड़ा और नीचे खोदने को कहा ...तब वहां बैठी हुई महिलाओं की उत्सुकता बढ़ गई ...लेकिन दो मिनट में ही वह भी शांत हो गई जब थोड़ा सा ही खोदने पर खुर्पी के किसी पीतल के बर्तन के साथ टकराने की आवाज़ आई ....एक पीतल का बर्तन निकाला गया जिस में उन्होंने अपने गहने संभाल कर रखे हुए थे .....तो यह हुई तंदूर के अंदर छुपे लॉकर की कहानी - कौन कहता है जब बैंक-लॉकर न थे या उन तक उन की पहुंच न थी, तब वे कैसे करते थे अपने माल की रक्षा ....उस का एक सच्चा किस्सा आपने पढ़ लिया, जब किसी भी चीज़ का अभाव होता है तो यह लोगों को जुगाड़ करने के लिए तैयार करती है, जिसे आज के पढ़े-लिखे लोग क्रिएटिविटि कहते हैं ....अनेकों-अनेक किस्से अभी भी अनकहे धरे पड़े होंगे, लेकिन कोई साझा तो करे। जब कोई बात लिख कर दर्ज कर दी जाती है तो सहज भाव में वह आने वाली पीढ़ियों के लिए साहित्य गढ़ देती है....और साहित्य की अहमियत से तो हम सब वाकिफ़ हैं ही ...
मानवीय संवेदनाएं सर्वोपरि हैं....शायद रहेंगी भी |
PS....आज की जिस अखबार में यह न्यूज़-स्टोरी दिखी जिस में पार्थिव शरीर की बातें लिखी थीं, उसी के बाईं तरफ़ ख़बर दिखी कि पुलिस ने करोड़ो रूपये की नशीली दवाईयों को जला दिया....और उस की दाईं तरफ़ पालतू जानवरों के दाह-संस्कार के लिए 50 करोड़ की लागत पर तैयार किए जाने वाली एक श्मशान-भूमि के तैयार किए जाने की खबर थी...संयोग की बात है ...एक ही पन्ने पर ये सारा कंटैंट .....लेकिन पढ़ते पढ़ते फिर एक ख्याल ने घेर लिया कि अच्छा है जानवरों की कोई राष्ट्रीयता नहीं होते, धर्म नहीं होते, जात-पात के बखेड़े नहीं होते, रंग-नसल के भेद से दूर हैं....वरना कईं मसले पैदा हो जाते कि पालतू जानवरों का अंतिम संस्कार किस रस्म से किया जाएगा...