Tuesday 18 July 2023

भारतीय रेल.....ज़िंदगी के साथ भी, ज़िंदगी के बाद भी!

1970 के दशक के शुरुआती साल ...हम बच्चे थे, छोटे ....😎 लेकिन अपनी कॉलोनी की एक महिला की बहादुरी का एक किस्सा सुना करते थे अकसर...बार बार ...कभी उन के सामने भी कोई न कोई उस किस्से को दोहरा दिया करता ..और इतराते हुए मंद मंद मुस्कुराना भी उन का याद है ...वह रेलवे के एक सैनेटरी इंस्पेक्टर की पत्नी थीं...(पहले हेल्थ-इंस्पैक्टर को इसी नाम से जाना जाता था) - शुक्ला जी बनारस के रहने वाले थे ...एक बार श्रीमति शुक्ला जी जब वहां गई हुई थीं तो उन की सासू मां गंभीर रूप से बीमार थीं, अब मिेले बगैर किसी से कोई सलाह-मशविरा करने का तो सवाल ही न होता था किसी के साथ, उन्होंने जैसे तैसे उस गंभीर हालत में ही अपनी सासू मां को भी अमृतसर की गाड़ी में साथ ही चढ़वा लिया, और सीट पर लेटा दिया.....और वह बेचारी इतनी बीमार थी कि चंद मिनटों में ही उस बुज़ुर्ग महिला को मुक्ति मिल गई ...

दो बरस पहले इस लेखक ने बनाया था यह पोस्टर ...आज इसे ढूंढ निकाला यहां चिपकाने के लिए , फोटो भी मैंने खींची थी और कैलीग्राफी भी लॉक-डाउन के दिनों में ...

अब आप श्रीमति शुक्ला की मनोस्थिति देखिए, मौके को संभालने की जुगत देखिए कि उस ने उस पर चद्दर डाल दी लेकिन ज़िंदा लोगों से भरे डिब्बे में कोई लाश भी लदी हुई है...इस बात को उन्होंने अमृतसर पहुंचने तक दबा कर रखा, वह यह कैसे रख पाईं मुझे आज भी याद है जिस तरह से लोग उन के मुंह से वर्णन सुनते थे, हम हैरान रह जाते थे ....टीटीई आया, उसको बता दिया कि मां हैं, सोई पड़ी हैं, चलिए ...दो तीन घंटे और बीत गए ....अगर सोया हुआ यात्री के शरीर में कोई हिल-ढुल नहीं हो रही तो लोगों को एक बात करने का मौका मिल जाता है, शक सा हो जाता है.....अन्य यात्री पूछते तो उन को समझा-बुझा देना कि मां हैं, खासी बीमार हैं ....यह तो श्रीमति मिश्रा के लिए तो बहुत आसान था। सफर चलता रहा ...अभी भी 18-20 घंटे का रास्ता है बनारस से अमृतसर तक का ...वह सोई नहीं, सचेत रह कर उस पार्थिव शरीर की रखवाली करती रही ...खैर, ये बातें ज़्यादा छुपती कहां हैं.....अंबाला आते आते टीटीई फिर आ गया कि माजरा क्या है ...इन को क्या है....उसने कहा कि ये तो लगता है चल बसीं हैं ....इतना सुनने पर उसने टीटीई की क्लास ले ली कि ऐसे आप कैसे किसी के बारे में कह सकते हैं। ज़माना सीधा था, जब उसने टीटीई को ही हड़का के रफ़ा-दफ़ा कर दिया तो डिब्बे के दूसरे लोगों की जिज्ञासा को शांत रखना कौन सी बड़ी बात थी ...

दरअसल बात यह थी कि यात्री डिब्बे में किसी लाश को ले जाना मना है, और अगर किसी को यह पता चल जाता कि वे लोग एक लाश के साथ सफ़र कर रहे हैं एक ही डिब्बे में ...तो पता नहीं डिब्बे में हड़कंप मचता या न, लेकिन श्रीमति मिश्रा को फ़ौरन अगले स्टेशऩ पर उतार दिया जाता ...खैर, वह महिला ने अपनी प्रेसेंस ऑफ माईंड से अपनी सास के पार्थिव शरीर के अमृतसर स्टेशन तक पहुंचा दिया ...आगे का सारा इंतज़ाम उस सैनेटरी इंस्पैक्टर ने संभाल लिया जो वहीं, उसी स्टेशन पर तैनात था...

मुझे आज यह बात याद आई सुबह सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था ...उसने एक न्यूज़ स्टोरी थी कि मध्य रेल ने पिछले तीन बरसों में 1500 के करीब मृत लोगों को उन के मुलुक (किसी के गांव, कसबे के लिए बंबईया भाषा) पहुंचा दिया ...और उसमें उस की सारी प्रक्रिया बताई गई थी ...किस तरह से एजैंट लोग ढ़ेरों औपचारिकताएं कैसे आसानी से पूरी करवा के पार्थिव शरीर को उसके गन्तव्य स्टेशन की तरफ़ रवाना कर देते हैं...एजैंटों के रेट फिक्स हैं ....अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि जो एजेंट लोग भी हैं, इन के साथ भी टैग-लाइन - ज़िंदगी के साथ भी, ज़िंदगी के बाद भी....जोड़ी जा सकती है ...खैर, जो डिटेल्स हैं, वह तो आप इस खबरों में पढ़ ही लेंगे। 

इसे अच्छे से पढ़ने के लिए आप को इस फोटो पर क्लिक करना होगा...

मेरे लिए भी यह एक अहम् जानकारी थी ...अभी मैंने खबर का शीर्षक ही पढ़ा तो मुझे लगा कि यार, मिट्टी तो मिट्टी है ..उसे भी मुलुक पहंचाने के लिए पेचीदगी भरा इतना रास्ता तय करना ....औपचारिकताओं से भरा हुआ...सरकारी विभाग के अपने नियम-कायदे होते ही हैं, फिर यह भी ख्याल आया कि साधन-संपन्न लोग तो हवाई-जहाज़ से सात समंदर पार से अपने परिजनों के पार्थिव शरीर ले आते हैं ....और वैसे भी मानवीय संवेदनाओं के आगे बहुत से तर्क क्षीण पड़ जाते हैं ...जैसे मेरे भी ज़ेहन में जो बाबा बुल्ले शाह की वह काफ़ी आ रही थी, मिट्टी उत्ते मिट्टी डुल्ली (मिट्टी पर मिट्टी गिरी)....वह गायब हो गई इस न्यूज़-स्टोरी को पढ़ते पढ़ते। 

मानवीय संवेदनाओं की बात है कि सैंकड़ों-हज़ारों कोसों दूर बैठे परिजन कैसे अचानक अपने सगे-संबंधी के आखिरी दीदार करने आएं, रेलवे की इस अत्यंत मानवीय सुविधा की वजह से एक पार्थिव शरीर ही अपने गांव पहुंच जाता है ...और जो बात हैरान करने वाली है कि रेलवे विभाग इस के लिए सिर्फ़ एक हज़ार से डेढ़-हज़ार वसूलता है लेकिन सामान ढोने के जिस डिब्बे में इस शव को रखा जाता है उस में किसी और माल की ढुलाई नहीं की जाती उस दिन ...और इससे रेलवे को उस दिन माल ढुलाई के लिए मिलने वाले 30 हज़ार रूपये की राशि से महरूम होना पड़ता है ..

टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई 18 जुलाई 2023

लेकिन यही तो है देश की इस लाइफ-लाइन का सामाजिक दायित्व  -यह दायित्व बहुत भव्य है, लोकल गाड़ी में बैठे बैठे कईं बार सोचता हूं कि दस-बीस रूपये खर्च के बंदा बम्बई के एक कोने से दूसरे कोन तक पहुंच जाता है, खोमचे वाले, सब्जी वाले, दफ्‍तर तक खाना पहुंचाने वाले (मुंबई के डिब्बे वाले)....कैसे नियत समय पर अपने ठिकाने पर पहुंच जाते हैं ....बरसात हो या हो तूफ़ान....देश की यह लाइफ-लाइन का ही कमाल है कि चौबीसों घंटे देशवासियों के दुःख सुख में उस को अपने साथ रहने का अहसास दिलाती है ...ज़िंदगी के साथ भी जैसे हम अकसर देखते हैं और उस के बाद भी जैसा आपने ऊपर पढ़ लिया...

और हां, श्रीमति मिश्रा जी से बात शुरु की थी, उन से ही खत्म करेंगे ....जब सैनेटेरी इंस्पैक्टर की रिटायरमैंट हुई तो सरकारी आवास खाली तो करना ही थी...जब मां और उन की सहेलियां श्रीमति मिश्रा से मिलने गईँ तो वह आंगन में लगे एक तंदूर को तुड़वा में लगी हुई थीं, ...मां ने कहा- बहन जी, इसे क्यों तोड रही हैं, रहने दीजिए, जो भी आएगा, इस में लगी रोटीयां खाएगा....मां ने बताया कि उसने इस का कोई जवाब न दिया ...लेकिन जैसे ही तंदूर का किला पूरी तरह से धवस्त हो गया तो अपने बेटे को थोड़ा और नीचे खोदने को कहा ...तब वहां बैठी हुई महिलाओं की उत्सुकता बढ़ गई ...लेकिन दो मिनट में ही वह भी शांत हो गई जब थोड़ा सा ही खोदने पर खुर्पी के किसी पीतल के बर्तन के साथ टकराने की आवाज़ आई ....एक पीतल का बर्तन निकाला गया जिस में उन्होंने अपने गहने संभाल कर रखे हुए थे .....तो यह हुई तंदूर के अंदर छुपे लॉकर की कहानी - कौन कहता है जब बैंक-लॉकर न थे या उन तक उन की पहुंच न थी, तब वे कैसे करते थे अपने माल की रक्षा ....उस का एक सच्चा किस्सा आपने पढ़ लिया, जब किसी भी चीज़ का अभाव होता है तो यह लोगों को जुगाड़ करने के लिए तैयार करती है, जिसे आज के पढ़े-लिखे लोग क्रिएटिविटि कहते हैं ....अनेकों-अनेक किस्से अभी भी अनकहे धरे पड़े होंगे, लेकिन कोई साझा तो करे। जब कोई बात लिख कर दर्ज कर दी जाती है तो सहज भाव में वह आने वाली पीढ़ियों के लिए साहित्य गढ़ देती है....और साहित्य की अहमियत से तो हम सब वाकिफ़ हैं ही ...

मानवीय संवेदनाएं सर्वोपरि हैं....शायद रहेंगी भी

PS....आज की जिस अखबार में यह न्यूज़-स्टोरी दिखी जिस में पार्थिव शरीर की बातें लिखी थीं, उसी के बाईं तरफ़ ख़बर दिखी कि पुलिस ने करोड़ो रूपये की नशीली दवाईयों को जला दिया....और उस की दाईं तरफ़ पालतू जानवरों के दाह-संस्कार के लिए 50 करोड़ की लागत पर तैयार किए जाने वाली एक श्मशान-भूमि के तैयार किए जाने की खबर थी...संयोग की बात है ...एक ही पन्ने पर ये सारा कंटैंट .....लेकिन पढ़ते पढ़ते फिर एक ख्याल ने घेर लिया कि अच्छा है जानवरों की कोई राष्ट्रीयता नहीं होते, धर्म नहीं होते, जात-पात के बखेड़े नहीं होते, रंग-नसल के भेद से दूर हैं....वरना कईं मसले पैदा हो जाते कि पालतू जानवरों का अंतिम संस्कार किस रस्म से किया जाएगा...

Saturday 15 July 2023

चाय पे चर्चा .....

मैं अकसर सोचता हूं कि आज से २०-२५ बरस पहले जब लिखने का बहुत जज़्बा था, चाहत थी ....लेकिन लिखने के गुर न पता थे ...एक लेख लिखने के बाद लगता था कि कुछ ही विषय हैं जिन पर हम लोग लिख सकते हैं...अब जब कुछ थोड़ा जान पाए हैं लिखते लिखते कि विषय तो हर तरफ़ बिखरे पड़े हैं...हमारे आस पास, हमारी ज़िंदगी में, हमारी गलियों में, फुटपाथों पर ...स्टेशनों पर, लोकल गाड़ियों में और हां, अखबारों में भी ....बहुत कुछ है जिस पर अभी लिखा जा सकता है, लेकिन अब लिखने का वैसा पैशन नहीं रहा, शाम होने तक इतना थक जाते हैं, घुटने दर्द करने लगते हैं ....ख्याल आता भी है लिखने का तो फिर लगता है छोड़ो, यार, बहुत हो गया....बस, ऐसे ही लिखना पीछे छूटता जा रहा है ...ढीठ बन कर ब्लॉग लिखने बैठ जाता हूं कि जो काम १६ बरसों से कर रहा हूं उसे कम से कम चालू तो रख सकूं....यह पोस्ट भी मैं कोई बीस दिन बाद लिख रहा हूं ...

पोस्ट में बात तो छोटी सी है लेकिन दर्ज करने लायक है ...छोटी छोटी हल्की फुल्की बातें भी ज़रूरी होती है, केवल सिर-खपाने और दुखाने वाली भारी भरकम बातों से भी कभी छुट्टी लेनी चाहिए। 

चाय पर चर्चा करनी है थोड़ी आज ...चाय, जो बचपन में हमें कम मिलती थी क्योंकि मां को यह यकीन था कि चाय पीने से रंग काला हो जाता है...हमें तो यही लगता कि यार, पता नहीं रंग काला हो जाएगा तो कौन सा कहर ढह जाएगा...लेकिन मुझे अच्छे से याद है दसवीं जमात तक हमें चाय पीने के लिए लगभग मिन्नत करनी पड़ती थी ...क्योंकि वही काले हो जाने का डर ...😎😇😅...लिखते लिखते यह भी लगता है कि उस ज़माने के लोग भी कितने सीधे-सपाट थे ...बस, जो बात दिलोदिमाग में घर कर गई सो कर गई ...उस से टस मस नहीं....हां, यह वह ५०-५५ साल पुराना दौर था जब गोरा होना भी एक गुण जैसा होता था ....मुझे अभी तक समझ नहीं आई कि अगर काले हो भी जाते तो क्या हो जाता....

लेकिन हां, हमें नानी के यहां चाय बिना किसी रोक टोक के मिल जाती ......कईं बार नाश्ता में भी चाय में रस्क डुबो कर खाने को मिलते ...अच्छे से याद है २-३ रूपए में हम लोग अंबाला छावनी की एक बेकरी से वे रस्क ले कर आते ...दो बड़े बड़े खाकी रंग के लिफाफे में रस्क भरे हुए (देखिए, हम ने तो हमेशा रस ही सुना है और बोला है ...लेकिन लिखते हुए रस्क लिख रहे हैं, क्योंकि आज बड़ी बड़ी बेकरियों और ब्रांडों में इसे रस्क ही कहते है ं...) ...नानी की चाय, अंगीठी पर बनी हुई ....शक्कर से लैस होती थी ...वो एक पंजाबी में कहावत जैसी एक बात है.....चाय में दुध रोक के ते मिट्ठा ठोक के ...(दूध कम डालना लेकिन शक्कर भरपूर डालना)...

हां, नानी की बनी चाय से एक बाद याद आई ..वह ज़िंदगी में पी हुई अब तक की सब से बेहतरीन चाय थी ...शायद भरपूर चीनी की वजह से और नानी के प्यार का अदृश्य टी-मसाला भी तो उसमें ज़रूर रहता ही था ...नानी कभी भी चाय को छन कर नहीं पीती थी क्योंकि वह कहती थी कि उस से चाय का साह-सत्त (पंजाबी शब्द, चाय की जान) निकल जाता है ....बरसों बरस हम लोग नानी के जाने के बाद भी उस की यह बात याद कर के मज़ा लेते.....वही आदत नानी से मां में आ गई ....और मां से मेरे में ....जब तक मां रही, मुझे भी मां के साथ बिना छनी हुई चाय ही पीने में मज़ा आता था ....और जब तक चाय पीने के बाद मुंह में पत्ती के कुछ दाने न रह जाएं ....लगता ही न था जैसे चाय पी है....😂

यह जो नानी के चाय के साह-सत्त निकलने की बात कही ...उस से मुझे एक घटना याद आ गई ...उन दिनों हम लोग फिरोज़पुर में थे . गाड़ी से दिल्ली जा रहे थे, भटिंड़ा में एक बंदे ने अपनी छोटी सी बेटी की फरमाईश पर लिमका की बोतल दिलाई .....उस की बेटी वह खुली हुई बोतल हाथ में थामे हुए आराम से उस का उस का मज़ा लेते हुए आहिस्ता २ पी रही थी, बीच में ब्रेक दे दे कर ...इतने में उस पेंडू ने बच्ची को लगभग डांटते हुए कह दिया......हुन पी वी लै ऐन्नू जल्दी, सारी गैंस निकल जाऊ (अब इस को जल्दी से पी भी ले, वरना इस की सारी गैस निकल जाएगी)....कुछ कुछ किस्से होते हैं जो याद रह जाते हैं ..जैसे भाखड़ा डैम बना तो सुना है बहुत से गांव के बुज़ुर्गों ने यह शिकायत कि अगर पानी से बिजली ही निकल गई तो फिर पानी दा साह-सत्त (पानी की जान) तो निकल गया समझो....

खैर, चाय की बात पर याद आता है कि कालेज के ज़माने से फिर हमने चाय जम कर पीनी शुरू की ...लगता है चाय तो एक बहाना था उस के साथ बेसन और मोताचूर के लड़्डू, और बहुत से आटे के बेकरी वाले बिस्कुट खाने का ...और कभी कभी जलेबी, समोसा और बर्फी भी ....अब जा कर ६० साल की उम्र में डाक्टर की सलाह पर चाय में मीठा कम डाल कर पीना शुरू किया है ..और बड़ी मुश्किल से इन लड्डूओं और बिस्कुटों पर लगाम कसी है ...वैसे, एक बात देखी है जब हम इन सब को खाना बंद करते हैं या बिल्कुल कम भी करते हैं तो वह अच्छा लगने लगता है ..आदत की बात है ...

यह उन दिनों की बात है .....यही कोई 12-13 साल पहले ...लेखक किसी गंभीर मंथन में मग्न 😂

लेकिन चाय की आदत तो ऐसी है कि हमें हमेशा से अच्छी तरह से उबली हुई, देशी चाय ही पसंद रही है ...मुझे ये तरह तरह की ग्रीन, ब्लैक, लेमन टी....और भी पता नहीं क्या क्या ....ट्राई बहुत सी की हैं लेकिन एक बार पी कर फिर कभी न पी ...उस डिप-डिप वाली नौटंकी से भी अपना कुछ नहीं होता ....हमें तो घर और बाहर वही उबली हुई चाय ही भाती है .....जहां भी ये ग्रीन-ब्लैक-लेमन ऑफर की जाती है ..एक घूंट भरने के बाद वहीं रख देते हैं....क्योंकि हमें वह हमेशा कड़वी दवाईयां ही लगती हैं....

इतने शांत स्वभाव वाला, अपने आप में मगन विक्रेता मैंने कम ही देखा है ...ये जो लंबे लंबे पत्ते हैं, यही चाय के पत्ते हैं....
(संपादित--यह पोस्ट लिखने के बाद मुझे नीचे कमैंट से याद आया है कि ये लेमन ग्रास है ...) 

जिस रास्ते से गुज़रता हूं यहां बंबई में वहां पर मेरी ही उम्र का एक बुज़ुर्ग कढ़ी-पत्ता और लंबे लंबे पत्ते रखे दिखता है ....जो उस का अंदाज़ है, सिर पर रूमाल लपेटे हुए ....बड़े इत्मीनान से बैठा दिखता है हमेशा ...कुछ महीने पहले जब जिज्ञासा को रोक नहीं पाया तो पूछ ही लिया कि ये बडे़ बड़े पत्ते क्या हैं....मुझे उस बंदे के हाव-भाव से यही लगता था हमेशा जैसे कि ये कोई पूजा में इस्तेमाल होने वाले पत्ते ही होंगे ज़रूर ...(मुंबई की सड़कों पर तीज-त्यौहारों के मौके पर पूजा-अर्चना के लिए नाना प्रकार के पत्ते बिकते हैं )....खैर, मेरा अनुमान गलत था ...उस बंदे ने बताया कि यह चाय है ..मुझे लगा कि यही होगी ग्रीन टी ...मैने एक बंडल खरीद लिया उन ताज़ा पत्तों का ...उसने बताया दो तीन दिन में इस्तेमाल कर लेना....

मैंने चाय बनाई और उसमें टाटा टी की चाय पत्ती की जगह उस के दो चार पत्तों को डाल दिया ....कुछ भी न हुआ...शायद मैंने नेट पर भी सर्च तो किया लेकिन कुछ मिला नहीं...बस, वे पत्ते वहीं रखे रखे सूख गए और फैंक दिए....

यह फोटू मैंने अजमेर में 10 साल पहले एक चाय के खोखे पर खींची थी, जहां पर मैंने चाय पी थी  ...
वैधानिक चेतावनी- धूम्रपान सेहत के लिए खतरनाक है ..

दो दिन पहले मैं और मेरे दो-तीन साथी एक जगह से गुज़र रहे थे तो एक ने कहा कि चलो, यहां से चाय बिस्कुट का नाश्ता करते हैं...नेकी और पूछ पूछ ...ये जो चाय की गुमटियां होती हैं न ....बीच रास्तों में, सड़क किनारे पर ...इन की चाय एक दम परफैक्ट होती है ...और यह बंबई की बात नहीं है ...देश से कोने कोने की बात है यह ...मैं तो किसी नईं जगह जाऊं तो सब से पहले ऐसी गुमटी ही ढूंढता हूं जहां दस बीस लोग घेरा डाल कर खड़े होते हैं ....कुछ अखबार पढ़ते दिखते हैं, कुछ फेफड़े सेंकते ....। हां, तो जब वह बंदा चाय तैयार कर रहा था तो उस ने उबलती चाय में एक हरा सा पत्तों का एक पैकेट सा फैंका ...मुझे उत्सुकता हुई कि यह क्या फैंका इसने ....मेरे एक साथी ने कहा कि यह हरी चाय का पत्ता है ...मैं समझा नहीं, मैंने उस के थैले में झांका जहां से उस ने उसे निकाला था ...सारा माजरा मेरी समझ में आ गया....कि ये चाय के पत्ते वही हैं जो बंबई के फुटपाथ पर बिकते हैं ....जिन को चाय पत्ती डालने के साथ साथ इस ढंग से इस्तेमाल करन होता है ....आप देखिए, अगर हम अपने आस पास देखते हुए चलते हैं, लोगों से बोलते-बतियाते हैं तो ज्ञान का क्या है, वह तो हमें कहीं से भी मिल सकता है ....हर इंसान जिस से हम मिलते हैं, वह ज्ञान का भंडार इस तरह से है कि वह ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा जानता है जिसे हम नहीं जानते ...मैंने तो इसे आजमाया हुआ है ...और हां, उस चाय का ज़ायका मज़ेदार था, उस दिन से मैंने वैसी चाय पीने की शुरुआत की तो है ...देखते हैं यह शौक कितने दिन तक ढो पाते है ं...😎😂

चाय का ज़ायका बढ़ाने वाले जुगाड़ - लेमन-ग्रास, अदरक...

चाय की बात यहीं खत्म करते हैं ....आप भी इत्मीनान से चाय पीजिए...चाय की ताकत को कम मत समझिए....चाय बेचते बेचते, चाय पर चर्चा करते करते लोग कहां से कहां पहुच गए ....और , मेरी चाय की पत्ती वाली गुत्थी भी इसी चाय पर हुई चर्चा के चक्कर में उस दिन सुलझ गई .... 

ऊपर मैंने एक जगह मेरी मां के दिल में बसी हुई बात का ज़िक्र किया कि चाय पीने से रंग काला हो जाएगा.......वैसे, अगर ऐसा होता भी हो ऐसा तो क्या फ़र्क पड़ता है ....इस दुनिया के फुलवाडी़ की निराली शोभा ही इसीलिए है क्योंकि इस में  भिन्न भिन्न रंगों के इंसान रूपी फूल इस को शोभायमान कर रहे हैं....इसी बात से वह गीत याद आ गया....जंगल में दो फूल खिले, इक गोरा इस काला.... 😎

Sunday 25 June 2023

दुनिया की सैर कर लो...

अभी मैं जब यह लिखने लगा तो मुझे पोस्ट के शीर्षक के लिए कुछ सूझ नहीं रहा था ...फिर अचानक बचपन से सुनाई दे रहा गीत याद आ गया...दुनिया की सैर कर लो....यू-ट्यूब पर देखा तो पता चला कि यह 1967 में आई हिंदी फिल्म अराउंड दा वर्ड का गीत है ...रेडियो पर इसे बार 2 सुनाई देने पर न थकते थे, न अकते थे....

न्यूयार्क के स्टेचू ऑफ लिबर्टी के खुशनुमा बाग का दिलकश नज़ारा 

हमारे एक दोस्त आज कल श्री मति जी के साथ अमेरिका की यात्रा पर हैं...वहां से वह वहां के कुदरती नज़ारों की तस्वीरें और वीडियो भेजते हैं ...हैरत में पड़ जाता हूं मैं उन सब नज़ारों को देख कर ...ऐसे ऐसे मनोरम नज़ारे, नदियां, पहाड़, झरने-  उन का वर्णन ही नहीं कर सकता...मैं अकसर यह सब देख कर यही सोचता हूं कि यह तो दुनिया के एक देश के एक इलाके के दृश्य हैं ...और पूरी दुनिया में न जाने क्या अद्भुत भरा पड़ा होगा....

न्यू-यार्क में एक सप्ताह रहने के बाद ...ऐसे लगने लगा जैसे ज़िंदगी ही बदल सी गई है😎😂

हमें भी चार साल पहले अमेरिका के वाशिंगटन-न्यू-यार्क और न्यू-जर्सी जाने का मौका मिला था ..आठ दस दिन ही रहे लेकिन वही बात ..नज़ारे देख कर थक गए, तस्वीरें लेकर ऊब गए...वहां की आबोहवा के कारण चेहरे बदल गए (शायद यह भी खुशफ़हमी ही रही होगी...😃)...कभी कभी ख्वाबों की उड़ान भरते भरते (उसमें कौन सा पैसा लगता है!) मेरा तो वहां से आने का मन ही नहीं करता था ...लेकिन फिर भी अपनी दाल-रोटी और कांच के गिलास- कप में कड़क चाय पीने के लिए तरस गए....चाय-काफी मिलती तो थी सब जगह लेकिन वही कोई स्टाईरोफोम के मग या कप में ही ...अजीब सा स्वाद लगता था, ऐसे लगता था सच में जैसे दवाई पी रहे हैं ...जैसे तैसे दिन बीते और वापिस देश लौट आए। इतनी तस्वीरें खींची कि फोन भी थक गया और हम भी ..हम दोनों एक दूसरे से ही थक गए। 

यह व्हाइट-हाउस के अंदर की तस्वीर है ....चार बरस पहले ...

अभी भी अखबारों में इश्तिहार आते रहते हैं कि उन उन देशों का टूर कर लो, अब देख कर नज़रअंदाज़ करने लगे हैं...पहले अखबार की कतरन रख लिया करते थे ...लेकिन उन का भी कुछ हुआ नहीं, कभी कहीं गए ही नहीं, आने वाले वक्त का पता नहीं ...लिखते लिखते ख्याल आया पहले हिंदी-इंगलिश के मैगज़ीन में पर्यटन विशेषांक आते थे (जैसे सरिता में) ...जहां पर कुछ हिल स्टेशन या अन्य टूरिस्ट स्पॉट के बारे में जानकारी मिलती थी ...उन पन्नों का ज़रूर पढ़ा करते ...खास कर, यह जानने के लिए कि वहां जाना कैसे है, रेलगाड़ी कहां तक जाती है, वहां से बस या टैक्सी में कितना वक्त लगता है ....इतना सब कुछ पढ़ कर ही मज़ा आ जाता है ...जाना वाना तो कहां होता है , सिवाए नानी-दादी के घर-अंगना जाने के ....😎

न्यू-यार्क में सब लोग स्टॉक-मार्केट के पास डटे हुए इस सांड के साथ कुछ कुछ पंगे ले रहे थे ....मैंने भी फोटो खिंचवा ली एक 

कश्मीर जाने की तमन्ना है जब से होश संभाला है ...लेकिन नहीं जा नहीं पाए...मां जब तक रहीं कहती रहीं कि जाओ, हो कर आओ....कश्मीर नहीं देेखा तो कुछ नहीं देखा...दरअसल वह कश्मीर के उस इलाके (मीरपुर) की रहने वाली थीं जो अब पाकिस्तान के कब्जे में है, मां के दादाजी की लारीयां थीं वहां ...ये बड़े रईस थे (वैसे उन दिनों सभी रईस थे जैसे सभी लोगों से किस्से सुने हैं...)..ये लोग कश्मीर आते जाते रहते थे ...

हम भी पिछले कईं बरसों से यही सोच रहे हैं वहां जाएंगे ...जाएंगे ...रोड़ से जाना मोशन सिकनेस की वजह से मुमकिन नहीं है, हवाई यात्रा वहां जाने के लिए करना नहीं चाहते क्योंकि उस से तो ऐसी फील आएगी जैसे किसी ने एयर-एम्बुलेंस में एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचा दिया....बस, अब ट्रेन चलने का इंतज़ार कर रहे हैं....यह तो रही कश्मीर की बात,,,.रेलवे में 32 बरस से काम करने के बावजूद भी हम लोग कहीं नहीं गए...कभी बच्चे छोटे थे, कभी बड़े हो गए, कभी कोई मजबूरी, कभी कोई ....और 300 दिन की छुट्टियां भी इक्ट्ठी करने के चक्कर में भी अपने हिस्से की ज़िंदगी जी ही नहीं ....सच में कईं बार ऐसा ही लगता है ....300 दिन तो अभी भी नहीं बन पाए ....सारांश यही कि हमने अपना देश ही नहीं, किसी प्रदेश को या किसी इलाके को भी कहां तबीयत से देखा ....पंजाब में लगभग तीस-पैंतीस बरस रहे.....28 बरस अमृतसर में और 5-6 बरस फिरोज़ुपर में ...बस, उतना ही देखा पंजाब को या जितना ट्रेन या बस में जाते जाते दिख गया...

जिस भी शहर में रहे, उस को बामुश्किल 2-4-5-10 प्रतिशत ही जान पाए ....और उस से भी कम देख पाए ....यही हाल मुंबई का है ...अभी मुझे मेरे घिसे-पिटे घुटने होते हुए भी नई नई जगहों पर टहलने का शौक है ...नए रास्ते नापने अच्छे लगते हैं, फुटपाथ पर ज़िंदगी दिखती है, सारे किरदार वहीं एक साथ दिख जाते हैं....लेकिन फिर भी मैं मुंबई की तो बात ही क्या करूं....मुंबई के जिस इलाके में रहता हूं वहां के नेबरहुड के बारे में ही नहीं जानता....कुछ दिन पहले एक किताब दिखी .. फोर्ट वॉक्स ....इस के पन्ने उलटने पर इस बात की डिप्रेशन हुई कि हम बंबई को बिल्कुल भी नहीं जानते ....  

किताब के नीचे रखी अखबार में जो फोटो दिख रही है उस में लालू जी राहुल गांधी को मशविरा दे रहे हैं, अब दाड़ी मुंडवा लो और शादी बना डालो...


बस, इस तरह की किताबें इक्ट्ठा कर लेने से, टीटीके द्वारा प्रकाशित विभिन्न शहरों के कैटालॉग, नक्शे, पर्यटन विभाग के पेम्फलेट्स, आईआरटीसी के विज्ञापन, थामसन कुक के अखबा....सब कुछ जमा करते रहे हैं कि कभी जाएंगे ...कभी इन को हाथ में पकड़ कर दुनिया देखेंगे ...जब कि आज के दिन अगर दुनिया में कहीं भी भ्रमण करने का जज़्बा है तो हाथ में मोबाईल ही काफ़ी है....वैसे तो पेमेंट के लिए भी इतना ही काफ़ी है, अगर क्रेडिट-डेबिट कार्ड भी बटुए में होगा तो ठीक ही है ...

बात यही है कि हम लोग अपनी खुशियों को टालते रहते हैं ...जिस काम को करने में हमें खुशी मिलती है, वह हम टालते रहते हैं जब तक हम उम्र के उस दौर में नहीं पहुंचते कि हमारा दिल तो करे बहुत जगह जाने को ....ज़िंदगी जीने को ..लेकिन घुटने हड़ताल कर दें ...वैसे भी हम समझते हैं कि युवावस्था से शुरू हो कर बंदा अपनी इच्छाओं की विशलिस्ट बनाने में मसरूफ़ रहता है कि इन इन जगहों पर जाएंगे ....ये ये काम करेंगे ...ट्रेकिंग करेंगे ...कैंपिंग करेंगे...म्यूज़िक सीखेंगे...म्यूज़िक इंस्ट्यूमैंट भी सीखेंगे .....और फिर देखते ही देखते उम्र का वह दौर आ जाता है जब इंसान इस विश-लिट की आइटमों को काटना शुरू कर देता है ....क्या करेंगे वहां जाकर ...इतना कुछ तो वाट्सएप पर देख चुके हैं, फलां फलां जगह जाना अब न हो पाएगा, अब क्या म्यूज़िक सीखेंगे, इस बुढ़ापे में अब क्या गिटार सीखते अच्छे लगेंगे, ऐसे ही ख्याल आते हैं....बस, ऐसे ही सब कुछ टलता रहता है, जितना मैं ज़िंदगी को अब तक समझा हूं ...

ठीक से पढ़ने के लिए इस पर क्लिक कर सकते हैं...

इतना कुछ लिखने के बाद और यह लिखने से पहले भी और लिखते वक्त भी मुझे रविंद्र नाथ टैगोर के वे अल्फ़ाज़ याद आ रहे हैं....जिसे मैंने अपने कमरे की दीवार पर टांग कर रखा हुआ है ...ताकि मैं उन की यह बात कभी न भूलूं.....उन्होंने यही बात कही है कि मैं दुनिया भर को देख आया....पहाड़, झरने, समंदर, आसमां....सब कुछ देख लिया...लेकिन मैंने अपने कमरे की खिड़की केे बाहर धान के पौधे की बाली पर ओस की बूंदों को तो देखा ही नहीं....

बस, रविंद्रनाथ टैगोर की बात दिल में घर कर गई है ....बार बार याद आती रहती है .....जितना भी देख लेंगे, कुछ न कुछ तो छूट ही जाएगा...और वैसे भी अपने परिवेश में, अपने आस पास देखना होगा, उसी से जान पहचान बढ़ानी होगी.....और हां, इतनी बात पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि इस काम के लिए आप को मेडिटेशन (ध्यान) का अभ्यास निरंतर करना होगा .....सब कुछ उसी में शामिल है, रचा बसा हुआ है ....ज़्यादा भाग-दौड़ स्वतः ही ज़िंदगी से दूर होने लगती है .....आजमा कर देखिए आप भी कभी .....

स्टेचू ऑफ लिबर्टी जब गए ही थे, तो फोटो भी खिंचवा ली....😎



लव यू पंचम ....म्यूज़िक कंसर्ट


लखनऊ में और बंबई में रहते हुए ये फिल्मी कंसर्ट इतने देख लिए हैं कि अब मन भर गया है ...अब तो कोई स्पैशल ही कंसर्ट हो या षणमुखानंद जैसे हाल में प्रोग्राम हो तो ही इच्छा होती है ..इन सब के बारे में इतवार के दिन टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ जो बॉम्बे टाइम्स आता है उस से पता चल जाता है ...

आर डी बर्मन का कौन फैन नहीं है....अब उन की याद में प्रोग्राम हो और वहां न पहुंचें तो क्या बात हुई। इस बार तो यह प्रोग्राम छूट ही जाता ..अगर दो दिन पहले एक दोस्त ने याद न दिलाया होता कि पंचम के प्रोग्राम में जाने का क्या ख्याल है। बस, उसी वक्त बुक-मॉय-शो पर टिकटें ले लीं...





इस प्रोग्राम में जाने के लिए बेताबी इसलिए भी थी कि उसमें कविता कृष्णमूर्ति ने भी लाइव गाना था ....कविता कृष्णमूर्ति को इससे पहले लाइव नहीं सुना था ...सारा हाल भरा हुआ था ...कविता कृष्णमूर्ति को टीवी पर अकसर देख चुके हैं....जिनकी आवाज़ इतनी सुरीली है उन के बारे में यह कहना कि वे उतनी ही मृदुभाषी भी हैं...अजीब सा लगता है। 

कविता कह रही थीं कि वह 51 बरसों से गायन कर रही हैं...उन के पति दुनिया में ख्याति-प्राप्त फ्यूज़न-म्यूज़िक के गुरू डा एल सुब्रह्मणयम का भी अभिनंदन किया गया...अभी मैं उन के पति का नाम लिखने लगा तो मुझे लगा कि मैं वह नाम ठीक से लिख पाऊं, इसलिए मैं गूगल किया तो मुझे कविता कृष्णमूर्ति का बॉयोडैटा नज़र आ गया ...ओ मॉय गॉड, फिल्मी गीत गाने के लिए इतने अवार्ड ....आप भी इस लिंक पर देख सकते हैं...

कविता ने अपने संस्मरण भी साझा किए ...बहुत सी बातें भी की....वह कह रही थीं कि गीत तो आप लोग यू-ट्यूब पर भी सुन लेंगे ...मुझे आप से इन गीतों से जुड़ी यादें भी साझा करनी हैं....एक बात जो क़ाबिले-गौर थी कि अभी तक मैंने कविता को हिंदी में ही बोलते देखा सुना था ....लेकिन इस प्रोग्राम में अपना वार्तालाप इंगलिश में ही किया ...बिल्कुल सरल एवं बहुत प्रभावशाली इंगलिश में ...

वह बता रही थीं कि उन्होंने पंचम के संगीत निर्देशक में जितने भी गीत गाए लोगों ने उन को बहुत पसंद किया ...उन्होंने बताया शुरूआती दौर में दो-तीन गीत जो उन्होंने फिल्मों के लिए गाए, वे सब इतना अच्छा नहीं कर पाए....बता रही थीं कि पंचम कहने लगे कि तुम्हारे साथ एक ऐसा गीत करूंगा जो कमाल कर दिखाएगा...और फिर आई फिल्म 1942- ए लव स्टोरी.....और उस का गीत --लगता है डर सनम....रिम झिम रिम झिम ...




इस प्रोग्राम के डायरेक्टर नितिन शंकर भी एक जानेमाने संगीतकार हैं....हमारा ज्ञान तो संगीत के बारे में ऐसा है कि हमें तो यह भी नहीं पता कि ये जो इतने संगीत के वाद्य-यंत्र बजाए जा रहे हैं इन के नाम क्या हैं....लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा कि ये सभी कलाकार अपने अपने फन के माहिर हैं...और नितिन शंकर बता रहे थे कि ये जो ग्रुप हैं इन में से 10-12 लोग ऐसे पुराने फ़नकार हैं जो आर डी बर्मन के साथ काम करते रहे हैं...और हां, उस दिन आरडी बर्मन के साथ बहुत लंबे समय तक काम करने वाले जॉली मुखर्जी भी वहां थे ...ये आरडीबर्मन के संगीत में कोरस का काम देखते थे और पंचम दा के बहुत करीबी थे....उन्होंने भी दर्शकों के लिए एक दो गीत पेश किए...शोले के गीत के बाद तो तालियों की गूंज सुनते बनती थी ....  

 

कविता कृष्णमूर्ति ने अपने पसंदीदा गीतों की एक मेडली भी प्रस्तुत की ....


लव यू पंचम प्रोग्राम में जाकर उन के बारे में बहुत सी अच्छी बातें सुन कर बहुत अच्छा लगा...संयोग से मैं पिछले दिनों ही पंचम पर लिखी गई एक किताब पढ़ रहा था, लेकिन वही बात है किताब पढ़ना एक बात है और किसी लाइव प्रोग्राम में उनके उन साथियों से उन की बातें सुनने का मज़ा ही अलग होता है ....और रही बात नामचीन गायकों को सुनने की.....जिन्हें हम लोग रेडियो पर सुनते रहे, जिन के गाए गीत कैसेटों में भरवा कर सुनते रहे, जिन की आडियो सीडी और बाद में वीडियो सीडी और बाद में एफएम पर दिन रात जिन के गाए हुए गीतों की धूम मची हो, अगर इन को साक्षात गाते हुए देखने का मौका मिले तो क्या महसूस होता है ....यह ब्यां करना मुश्किल जान पड़ता है .......वैसे उस की ज़रुरत भी तो नहीं.....प्रोग्राम का आंखों देखा हाल जितना ज़रूरी समझा आप तक पहुंचा दिया न ....बात खत्म हुई ....लिखना तो और भी बहुत कुछ चाह रहा था, लेकिन इच्छा नहीं हो रही ....पोस्ट को यही पर बंद करते हैं....

Saturday 27 May 2023

जैसी संगत, वैसी चढ़े रंगत

कल देर शाम मैं कांदिवली में एक ओला कैब में था... टैक्सी में बैठ कर वक्त कैसे बीते, सब से बढ़िया तरीका है ड्राईवर से गुफ्तगू शुरु कर दी जाए...जो मैं अकसर करता हू्...सब से बड़ी बात होती है ब्रेकिंग-दा-आईस ....याने बात शुरु कैसे की जाए...वह काम कोई मुश्किल नहीं है...बुज़ुर्ग ड्राईवर अगर फुर्ती से अपनी पुरानी गाड़ी भायखला के एस-ब्रिज से भी बड़ी सहजता से निकाल ले आता है तो उस से पूछ लेते हैं कि कितने समय से हैं...कितने समय से टैक्सी चला रहे हैं....बस, एक बार बात शुरू हुई तो फिर सिलसिला चल निकलता है, दूसरे की सुनने के साथ साथ अपने बारे में भी दो बातें कहनी होती हैं, और वह काम कोई मुश्किल नहीं है...कईं बार, जब कोई टपोरी बड़ी बेफ़िक्री से भाग कर सड़क क्रॉस करता है तो फिर बंबई के बिगड़ते ट्रैफिक से बात शुरू हो जाती है ....सौ बातों की एक बात, अगर आपने बात करनी है किसी अंजान से तो बहुत कारण हैं, और अगर बेकार में बिना वजह मुंह फुलाए बैठे रहना है तो वह भी हमारी च्वॉइस है ...

ब्रेकिंग-दा-आईस ..

हां, तो कल जो ड्राईवर था कैब का ...वह एस भीड़ भाड़ वाले एरिया से जैसे ही निकला तो अपने आप कुछ कहने लगा कि इस एरिया में रहने से आदमी तरक्की नहीं कर सकता। आदमी इसी दायरे का हो कर रह जाता है। मैंने उस की हां में हां मिला दी ...क्योंकि मैं तो वैसे ही किसी से भी बातचीत के लिए उतावला रहता हूं...यही चलती फिरती पाठशाला है ....

फिर वह कहने लगा कि मैं भी कुछ साल पहले तक इतना गुटखा खाता था कि क्या बताऊं....बाद में मेरे पूछने पर उसने बताया कि एक सौ रूपये से भी ऊपर का गुटखा हो जाता था। बताने लगा कि सब छोड़ दिया। 

यह कैसे मुमकिन हुआ? - मैंने सवाल दाग दिया...

ग्राहकों से ही मिली सीख ...

बस, तीन कस्टमर मिले अलग अलग वक्त पर उन दिनों जिन्होंने मुझे खिड़की से बाहर गुटखा थूकते हुए टोका, उसने बताया ...और फिर एक बार तो एक बुज़ुर्गवार इंसान के साथ एक महिला थी, उसने तो मुझे खूब झांपा और कहा कि तुम ऐसे कैसे अपना आस पास इतना गंदा कर सकते हो...तुम्हें ऐसा देख कर हमें उल्टी जैसा होता है, चलो, हमें अपने घर ले कर चलो, मैं वहां थूकूं तो तुम्हें कैसा लगेगा - उसने आगे बताया। 
उन दिनों की ही बात है कि उस यादव नाम के ड्राईवर को उसके एक दोस्त ने बताया कि अगर तुम्हें गुटखा छोड़ने में दिक्कत हो रही है तो एक बार मेरे साथ टाटा अस्पताल के कैंसर वार्ड में चलो और देखो कि मुंह के कैंसर से ग्रस्त लोग किस हालात में जीने पर मजबूर होते हैं...

यादव ने बताया - बस, ऐसे ही इतना सब होने पर, तीन सवारियों के टोके जाने पर मुझे गुटखे से नफरत होने लगी ...और मैंने धीरे धीरे उस का इस्तेमाल कम करना शुरू कर दिया। क्योंकि जब मैं गुटखा चबाता था तब मैं चिढ़चिढ़ा सा रहता था, जल्दी में रहता था...कईं बार सिग्नल भी जंप कर जाता था, यही थूकने के चक्कर में ....और फिर धीरे धीरे मैंने इसे चबाना बिल्कुल बंद कर दिया। हमारा नाता यू.पी से है और वहां पर तो इन सब चीज़ों का इस्तेमाल कितना होता है, वह आप जानते ही हैं, पिता जी डायमंड बिजनेस में थे ...और वह निरंतर गुटखा खाते थे...और मैं पांचवी कक्षा से उन का गुटखा चुरा चुरा कर चबाना शुरू कर दिया...एक बार तो पिता जी ने पकड़ भी लिया....

पिता जी ने पकड़ कर अच्छे से ठुकाई की या झिड़क दिया, यह वह बता नहीं पाया,  कैब के सामने कोई वाहन आ गया था। और मैंने भी पुराने ज़ख्‍म कुरेदने की ज़रुरत नहीं समझी....वैसे मैं उस की इस बात से इत्तफाक नहीं रखता कि यह गुटखा अब यूपी की ही समस्या है, यह जानलेवा शौक अब देश के कोने कोने में फैल चुका है ...

और गुटखे की लत से मिल गई निजात ...

उसने बताया कि पिछले साढ़े तीन साल से उसने गुटखा नहीं चबाया ...यह सुन कर मुझे बहुत खुशी हुई...कहने लगा कि सारा दिन थूकने से उस के शरीर से कैल्शीयम कम हो रहा था...खैर, यह उस की सोच थी...गुटखे के नुकसान ही नुकसान...

बहुत बढ़िया, भई ...बहुत अच्छा किया...मैंने कहा और पूछा---वैसे गुटखा छोड़ने के फायदा क्या हुआ?

फायदे ही फायदे हुए...अब मैं ग्राहक से अच्छे से बात कर सकता हूं। वैसे भी कैब में बड़ी बड़ी कंपनियों में काम करने वाले सफर करते हैं तो उन की बातें सुन सुन कर मैंने भी अच्छे से बात करना सीख लिया है। पहले मुझे मुंह खोलने में दिक्कत होती थी, और मेरे मुंह में दो उंगली ही जा पाती थी,अब देखिए तीन उंगली के बराबर मैं मुंह खोल सकता हूं....और मुंह के अंदर जो मुझे मिर्ची-तीखा खाते वक्त लगता था, वह अब नहीं लगता...

वह ३०-३२ वर्षीय युवक बिल्कुल सही कह रहा था... यह मुंह का खुलना कम होना गुटखा खाने वाले में एक महत्वपूर्ण लक्षण है ....और इसे छोड़ने पर बहुत से  मरीज़ों में मुंह के अंदर की लचक वापिस आने लगती है और मुंह पहले से बेहतर खुलने लगता है...

गुटखे की जगह ले ली तंबाकू ने ..

अब, आंवला खाया करो, साग-सब्जी लिया करो और सलाद भी खाया करो, उस से और भी बढ़िया लगेगा...आंवला खाने पर मैंने बहुत ज़ोर दिया तो उसके मुंह से अचानक निकल गया - पूरा ख्याल रखता हूं अपना , बस कभी कभी तंबाकू रख लेता हूं ...वह भी ज़्यादा वक्त के लिए ...थोड़े समय के बाद ही उसे थूक देता हूं..

अब मुझे उसे अपनी पहचान बतानी पड़ी ताकि वह मेरी कही बात मान ले। मैंने उसे समझाया कि ज़हर तो ज़हर है ....चाहे तुम उसे तंबाकू के रूप में इस्तेमाल करो या गुटखे के रूप में चबा लो। चाहे जल्दी थूको या देर से ...तंबाकू के लफड़े से नहीं बच पाओगेे...गुटखा छोड़ दिया तो क्या, अब तंबाकू को पकड़ लिया ....बचो, इस से भी, छोड़ो इसे भी ....मैं रोज़ाना इस से ग्रस्त अनेकों मरीज़ देखता हूं इसलिए कह रहा हूं....

बात उस की समझ में आ गई ...कहने लगा कि छोड़ दूंगा धीरे धीरे ...मैंने कहा - एक ही झटके में छोड़ दो.....

कहने लगा कि यह न हो पाएगा उससे क्योंकि गुटखा भी उसने धीरे धीरे कर के छो़ड़ा था। मैंने सोचा कि इतना भी किसी के क्या पीछे पड़ा जाए, बंदे में विल-पॉवर है तो ..तभी तो गुटखे जैसी नामुराद चीज़ से निजात पा ली उसने, मुझे यकीं था कि तंबाकू भी वह छोड़ देगा...

फॉलो-अप भी कर लेंगे !!

फिर भी लगा कि इस का फॉलो-अप ज़रूरी है ...उसे कहा ...मेरा फोन नंबर और नाम तुम्हारे पास आ गया है, ंतंबाकू छोड़ने पर मुझे वाट्सएप करना....वह कहने लगा ज़रूर करूंगा....मैंने कहा कोई दिक्कत आए तो बताना, मुझ से पूछ भी लेना...कभी भी ....देखूंगा ...कुछ दिन तक नहीं बताएगा, तो खुद मैसेज कर लूंगा .....फोन मैंने भी सेव कर लिया है उस का ....रास्ते में इतनी बातें हुईं...यह तो फिर टाइम-पास हो गया अगर उसने मेरी बात मान कर तंबाकू न छोड़ा ....तंबाकू तो उस का छुड़ा कर ही दम लेंगे हम भी...देखते  हैं...बताएंगे आप को भी .... अपना काम है लोगों को इस भयंकर तंबाकू के किसी भी रूप के बारे में जागरूक करना और तब तक उन की पीछा न छोड़ना जब तक वे इस लत को लात न मार दें....क्योंकि यादव हो, शर्मा हो, कपूर हो, शेट्टी हो या शिंदे,...एक एक बंदे के साथ पूरा कुनबा जुड़ा होता है ...वे सब खुश रहें, स्वस्थ रहें ....यही शुभ इच्छा है ...

मैंने उससे ऐसे ही सरसरी पूछा- तुम ग्रेजुएट हो? ......नहीं, सर, मैट्रिक हूं और बंबई में ही पढ़ाई की है, और जो लोग कैब में बैठते हैं उसने बहुत कुछ सीखा है....👍 जैसे कि बात चीत करने का तरीका, सलीका...बहुत कुछ। 

सही कह रहा था वह ....सयाने भी तो यही कहते हैं ...जैसी संगत, वैसी चढ़े रंगत... 

बस, इतने में कांदिवली स्टेशन आ गया...हम टैक्सी से उतर गए....एक बार उस को फिर मुफ्त की सलाह बांट कर ....😎तंबाकू भी छोड़ दो और मैसेज करो.... 😄..और हां, आगे से जब तीन ग्राहकों की बात किसी को सुनाओ तो मुझे चौथे नंबर वाले की भी सुना दिया करना....😃

कांदिवली ...यादों के झरोंखे से

स्टेशन के बाहर एक बहुत बड़ी लाइन लगी हुई थी रिक्शा के लिए ....कम से कम ५० लोग होंगे उस लाइन में ....लोकल गाड़ी पकड़ने से पहले स्टेशन के बाहर एक बहुत मशहूर वडे़-पाव की दुकान दिखी ....मशहूर का पता हमें देखते ही चल जाता है जिस तरह से लोग वहां जमघट लगा कर खड़े थे, उससे सब पता चल जाता है..हमने भी वड़ा-पाव खाया, और साथ की दुकान से दो गिलास गन्ने का रस पिया और किसी के पूछ कर प्लेटफार्म पर आ गए....शायद मैं २७-२८ साल बाद कांदिवली स्टेशन आया था ..१९९५ के अगस्त महीने में यहां दो तीन हफ्तों के लिए आता था ...एस एस वॉय का कोर्स किया था ...वह भी ज़िंदगी में एक टर्निंग-प्वाईंट से कम न था ...शाम के वक्त तीन घंटे की क्लास लगती थी ...और बंबई सेंट्रल से एक घंटा आने का और एक घंटा कांदिवली से वापिस लौटते वक्त...लेकिन जवानी के दिनों के क्या कहने .....हम लोग हंसते खेलते यह सब नया कुछ भी सीखने के लिए करते ऱहते थे ...

इस पोस्ट का कोई खास मकसद नहीं था, बात सिर्फ इतनी सी है कि आपस में हम सब बात करते रहना चाहिए, कोई बंदा भी परफेक्ट नहीं है, क्या पता किस की कौन सी बात किस की ज़िंदगी बदल दे, यह सच में होता है, हमने देखा है, और अभी आपने यह सच्चा किस्सा भी पढ़ लिया..बात करने से ही बात बनती है। ऐंठे ऐंठे , अलग थलग रहने से कुछ नहीं होता, सिरदर्द के सिवा.....हम ने वह भी अजमाया हुआ है। 

चलिए, कांदिवली जहां गए थे वहां की कुछ फोटू ही दिखा दें आप को ....

बहुत से श्रमिक प्लास्टिक के इन बेल-पत्तों से सजावट करते दिखे....मैंने कहा वह गाना सुना होगा....रूप ले आएंगे, रंग ले आएंगे....ये कागज़ के फूल...खुशबू कहां से लाएंगे...यह सुन कर हंसने लगे...

जहां गए थे वहां की पहली मंज़िल पर पोडियम का एक नज़ारा -खुशनुमा एकदम 



चिट्ठीयां तो लोग लिखते नहीं अब....लैटर-बॉक्स बराबर लगाए जा रहे हैं... 


मल्टीलेवल पार्किंग ...आज किसी ने बताया कि उन के यहां तो "पज़ल-पार्किंग" है....पूछने पर पता चला कि यह नाम इसलिए है कि आप अपनी गाड़ी खड़ी करिए, वह अपने आप उस जगह पर पहुंच जाएगी जहां तक उस वक्त पार्किंग स्लॉट खाली मिलेगा...

कांदिवली स्टेशन पर मखाने देख कर हमें भी खाने की इच्छा हुई..स्टॉल पर मिल रहे थे, खरीद लिए ...१६ ग्राम बीस रूपये के ..हवा से लैस हुए लिफाफे में ...😀😂😎

अब गाना कौन सा लगाऊं...उमस बड़ी है, कल बरसात का गीत लगाया था....और कल शाम को मैं ड्रम्स बजा रहा था, सीख रहा हूं बिल्कुल किंडरगार्डन के छात्र की तरह यू-ट्यूब से ....दो छोटे ड्रम्स खरीद लिए हैं...कल मैं बजा रहा था ..बहुत अच्छा लग रहा था, बेटे ने देखा फोटो खींचने लगा...विडियो बनाने लगा ....मैंने पूछा ..यार, कैसे लगा................उसने कहा ...वाह, बाप, वाह ....बस, इतना देख लेना, बाप, आप के बजाने से कहीं बरसात ही न शुरू हो जाए....😂😃😎😇

Thursday 25 May 2023

बारिश आने से पहले ....

बारिश के आने से पहले ...बारिश से बचने की तैयारी जारी है ...लोकल ट्रेन में दिखा यह विज्ञापन दो दिन पहले 

आज सुबह उठा, बॉलकनी से बाहर देखा तो ज़मीन पर पानी दिखा...यह न पता चल सका कि रात में बरसात हुई या फिर पानी के जो टैंकर रोज़ाना बिल्डिंग में आते हैं उन से पानी बह गया होगा...फिर भी मौसम के मिज़ाज बदले बदले दिखे..खुशग़वार...सिर थोड़ा भारी हो रहा था, सोचा बहुत दिन हो गए सुबह टहलने गए हुए...अजीब अजीब तरह के बहानों की वजह से ...कि लेट उठा लूं, ड्यूटी पर लेट हो जाऊंगा, अब धूप निकल आई है, कल चले जाएंगे ....सब के सब स्कूल के बच्चे के बहानों की तरह कच्चे, अपने दिल को दिलासा देने के लिए....खैर, चलिए, आज सुबह टहलने निकल ही गया...और बिना मोबाइल के ही ...और सड़कों पर भी रात में हुई बारिश के कुछ सुराग मिल गए...😎मलाल भी हुआ कि बारिश की पहली बूंदों से मिल ही न पाए ...

बाग़ में पहुंचते ही बरसात की कुछ बूंदें सिर पर पड़ी --हल्की हल्की बूंदाबांदी हुई कुछ पलों के लिए...दिल की किसी अंदर की तह में यह डर भी लगा कि अगर यह तेज़ हो गई और मैं भीग गया तो मेरा सिर दुःखने लगेगा ...खैर, ये मानसून के नहीं, प्री-मॉनसून की एक प्यारी सी फुहार थी ....अच्छा हुआ मोबाइल घर छोड गए थे, वरना या तो उस की फ़िक्र करने लगते या शेल्फी लेने के चक्कर में पड़ जाते ...

सुबह सवेरे धूप से बचने का कोई मेडीकल कारण भी हो सकता है 

हम लोग धूप से बचते फिरते हैं, तेज़ धूप से बचना भी चाहिए....कुछ दिन पहले मैंने एक महिला को देखा सुबह सैर करते वक्त भी वह छतड़ी का इस्तेमाल कर रही होगी...तरह २ की सनस्क्रीन अब घरों में डिस्कस होने लगी है, ये लगाओ बहुत ज़रुरी है, इस में इतना बचाव है ....लेकिन अब तक हमने कभी न तो इसे लगाया है और न ही कभी लगाएंगे...अब इस उम्र में क्या करेंगे ये सब चोंचलेबाज़ी...धूप में निकलना नहीं बन पाएगा तो घर ही बैठेंगे ...नहीं निकलेंगे बाहर ...

ये जो बड़े बड़े लेखक होते हैं ये सहज भाव से कुछ भी लिख देते हैं लेकिन उन की बातें हमें मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों की तरह, अपने बड़े-बुज़ुर्गों की सीख की तरह दिन दिन कईं बार याद आती हैं....गुलज़ार ने बारिश के आने से पहले वाली अपनी नज़्म में एक बहुत अच्छा कटाक्ष किया है ...किस तरह से बारिश के आने से पहले हम लोग उस से बचने की तैयारी कर लेते हैं...पढ़िए आप भी ...

ठीक से पढ़ न पाएं तो इमेज पर क्लिक कर के पढ़िए...

बचपन था तो उस दौर में मौसम भी अलग थे, हम पहली बरसात हो या आखिरी उस में भीगने के लिए तैयार रहते थे....जानबूझ कर छाता न ले कर जाते ...ऊपर ऊपर से नाटक करते भीग गए हैं लेकिन अंदर से खुश होते ...सड़क कर इक्ट्ठा हुए पानी में हो कर निकलना....कईं बार जब बर्फबारी होती तो उन छोटे छोटे बर्फ के गोलों को इक्ट्ठा करना और उन को खाने का मज़ा लेना...और सब को कहते सुनना कि आज तो यहां ही शिमला-मनाली बन गया है ..

फिर बेसौसमी बर्फ के ओले गिरने लगे ..और सारी ज़मीन को कभी भर देते तो हम डर भी जाते कि यार, यह तो कुछ गड़बड़ मामला है, यह कुदरत का रौद्र रूप है ...कहीं दुनिया ही तो खत्म नहीं होने वाली ...क्योंकि आस पास बड़े बुज़ुर्ग को भी अकसर यही कहते सुना करते थे ... 

कुदरत के साथ प्यार से रहने वाले संदेशे, अपनी औक़ात में रहने के रिमाँइडर हमें कहीं से मिलते रहते हैं..हम देख कर अनदेखा करें, वह हमारे ऊपर है ...लगे रहो मुन्ना भाई में यह जो बात सुनाई दी थी, उसे सुनिए, यहां क्लिक करिए..

हां, असल बात तो मैं करना भूल गया कि यह जो गुलज़ार साहब की कही बात मुझे याद ऐसे आई कि परसों शाम मैं एक लोकल ट्रेन में दादर से चढ़ा ..तो यह रेन-कोट का इश्तिहार देखा- फ़ौरन यही ख्याल आया कि अभी तो मानसून ने दस्तक भी नहीं दी कि हम लोगों की तैयारी हुई....मैंने जैसे ही इस की फोटो ली, साथ बैठे बंदे ने भी वैसा ही किया....वैसे मैंने कभी रेन-कोट पहना नहीं, एक बार खरीदा था, लेकिन शायद ही एक-दो बार पहना हो, मुझे इतने भारी-भरकम कपड़ों से सिर दुखने का डर रहता है ....और मुझे उसे पहनना ही बडा़ झंझट लगता है। खरीदा तो था मैंने लेकिन बिना इस्तेमाल के पड़ा पड़ा ही कट गया...और फिर उसे फैंक दिया...

रेन कोट से ख्याल आया...डकबैक कंपनी की सेल का ...यह दुकान बंबई के फ्लोरा फाउंटेन के ठीक पीछे हुआ करती थी (अब है या नहीं, पता नहीं) लेकिन ३० बरस पहले की यादे हैं कि मुंबई की मॉनसून के दौरान उस डकबैक के शोरूम में छतरीयों, रेनकोटों, हॉट-वॉटर बोतलों आदि की सेल लगा करती थी ...उन दो चार दिनों के लिए वहां मेला लगा होता था ....मैं भी गया था एक बार वहां ...अब तो छतरीयां, रेनकोट एडवर्टाइज़िंग के लिए, फैशन स्टेटमैंट के लिए इस्तेमाल होने लगे हैं...लेकिन हम लोगों को तो वह लंबा सा छाता, जैसे स्कूल के मास्टर , गांव के डाकखाने के बाबू रखते थे फिल्मों में ...हमें अभी भी वही अच्छा लगता है ...लगता है बंदा बारिश से बच रहा है ....लगना भी तो ज़रूरी है ...

बारिश पर लिखे गए फिल्मी गीत हमें कितने अच्छे लगते हैं....मैं तो जैसे ही इस के बारे में सोचता हूं ...एक के बाद एक मेरे दिमाग में दस्तक देकर उसे थका देते हैं...अभी भी ऐसा ही हुआ...मुझे यह गीत याद आया...यू-टयूब पर सर्च किया...हैरानी हुई ...इसलिए कि मैं इस गीत को तो बहुत ज़्यादा पसंद करता हूं लेकिन इस का वीडियो देखते हुए मुझे क्यूं ऐसे लगा कि मैं पहली बार इसे देख रहा हूं...यह फिल्म भी मुझे याद नहीं आ रही ......कोई नहीं, शाम को देखता हूं ....अभी उठूं और ड्यूटी पर भागूं.....शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है, सुनने में अच्छा लगता है, उड़ लिया ख्वाबों में थोड़ा इस तरह के गीतों का सहारा लेकर, लेकिन यथार्थ के धरातल पर भी लौटना ज़िंदगी की सच्चाई है ...😎

Sunday 21 May 2023

बम्बई में दैनिक भास्कर की एंट्री ...

२२ मई २०२३ 

मुझे कल सुबह बोईसर में टाटा होम्स की एक टाउनशिप में कोई आशियाना देखने जाना था ...यही कोई आठ बजे के पास बोरिवली पहुंच गया और डहानू रोड़ के लिए किसी गाड़ी की इंतज़ार करने लगा...एक लोकल ट्रेन आई लिखा था उस पर डहानू रोड लेकिन बीच में कुछ स्टेशनों पर घोषणा होते सुनी कि यह गाड़ी पालघर स्टेशन पर ही खत्म कर दी जाएगी...आगे आज रेल्वे का जम्बो-ब्लॉक है....

पालघर ...अब एक ज़िला है ....(रेलवे स्टेशन..प्लेट-फार्म नं १).. .साफ सुथरा स्टेशन...

पालघर की दूरी मुंबई से १०० किलोमीटर से कुछ ज़्यादा है ...गाड़ी वहीं तक थी तो वहां उतरना ही था, अभी विचार कर ही रहा था कि बाहर से रिक्शा ले लूं कि बोईसर जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार करूं ...१० किलोमीटर की दूरी है पालघर से बोईसर की ..इतने में प्लेटफार्म नंबर १ पर ए.एच.व्हीलर की दुकान दिखी ....बचपन से ही इन दुकानों से हमारा गहरा रिश्ता रहा है ....स्टेशन पर पहुंचते ही चंदामामा, पराग, नंदन, लोटपोट, मायापुरी...इन सब के पन्ने उलटने पलटने के लिए पहुंच जाते ...और हमेशा एक-दो खरीद भी लेते ....पुरानी आदतें नहीं छूटतीं ...यह आदत आज भी कायम है। 

पालघर का बुक स्टाल जहां हमारी दैनिक भास्कर मुंबई से मुलाकात हुई 

विभिन्न अखबारों को ताक रहा था कि दैनिक भास्कर अखबार देख कर आंखें उसी पर टिकी की टिकी रह गईं। सब से पहले ख्याल यही आया कि पालघर में यह पहुंच गया लेकिन मुंबई में नहीं...फिर उस को ध्यान से देखा तो पता चला कि यह तो मुंबई ही में छपा है। हैरानी हुई, कोई खबर नहीं हमें इस के आने की ...हमारे वर्तमान महानगर में इतनी बड़ी घटना हुई और वाट्सएप यूनिर्वसिटी से भी इस के बारे में पता न चला...

दुकानदार ने बताया कि यह ९ मई से बंबई से छपना शुरू हुआ है...मैंने उसे खरीदा और पढ़ना शुरू किया...दैनिक भास्कर को २००५ से २०२० तक उत्तर भारत के विभिन्न नगरों में रहते हुए पढ़ते रहे हैं...यहां मुंबई में नहीं दिखता था...अखबार एक ऐसी चीज़ है जिसे कोई किसी के कहने से नहीं पढ़ता और किस के हाथ में कौन सी अखबार होगी, यह भी वह खुद ही तय करता है। इसलिए अकसर हम लोग देखते हैं कि लोगों का अपने टुथपेस्ट, शेविंग क्रीम की तरह अपनी अखबार से भी एक भावनात्मक जुड़ाव सा हो जाता है ...

मुझे दैनिक भास्कर को वहां से लेकर बहुत खुशी हुई ...और यह हैरानी भी हुई कि यह अखबार के मुंबई में प्रवेश करने की खबर हमें बंबई से १०० किलोमीटर दूर पालघर में हासिल हुई...खैर, मिल गई, यही अच्छी बात है ...

अच्छा, पिछले लगभग १५ से भी ज़्यादा वर्षों से लोग कहते रहे हैं कि अब सारे अखबार लैपटाप-मोबाइल में आ गए हैं, इसलिए कहीं का भी अखबार कहीं बैठे बैठे देख लो.......वह सब हम जानते हैं लेकिन दिल का क्या करें, वह तो कमबख्त कागज़ की साक्षात अखबार को हाथ में पकड़ कर, फोल्ड करने, उस पर फांउटेन पेन से गोले लगाने, कुछ पंक्तियों को अंडरलाइन करने, एक -दो कतरन लेने और उन्हीं समाचार-पत्र के पन्नों को हाथ में लिए लिए सो जाने और सपने बुनने से बाज़ ही नहीं आता। जब अखबार हाथ में आता है न तो वह अपना लगता है ...यह हमारी मानसिकता है, इस का आप विश्लेषण कुछ भी करें...

कल के दैनिक भास्कर में छपे ये नंबर इस्तेमाल कीजिए....

कुछ अखबारें पढ़ते हुए अपने स्कूल में पढ़े-लिखे हुए समाचार पत्र के निबंध का ख्याल आ जाता है, दैनिक भास्कर जैसे अखबार में भी सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिए कुछ न कुछ बढ़िया रहता है ....आप के लिए क्या है, आज ही से इसे लगवा लीजिए और इसे पढ़ने का आनंद लीजिए....

और जाते जाते एक बात तो लिखनी भूल गया....वहीं पालघऱ स्टेशन पर बैठे बैठे दैनिक भास्कर को पढ़ा कल भयंकर गर्मी थी ....दैनिक भास्कर को हाथ में लेकर दिल को ठंडक तो मिल चुकी थी लेकिन शरीर पर लगने वाली उमस भरी तपिश के लिए क्या करता, उस के लिए वहां के मशहूर एवं मीठे चीकू और मलाई वाला नारियल पानी बहुत काम के साबित हुए ....सारी तपिश ..रूह की, शरीर की भी जाती रही ..😎
वाह रे, पालघर के चीकू...तेरा भी जवाब नहीं!!

 बढ़िया मीठे चीकू और मलाईदार नारीयल पानी से बढ़िया नाश्ता क्या होता होगा🙌

शीर्षक लिखते वक्त एक बार लगा कि लिख दूं ..बम्बई में दैनिक भास्कर की हुई धमाकेदार एंट्री ..लेकिन यही लगा अगर कुछ धमाकेदार हुआ ही नहीं, उस के लिए किसी लफ्‍ज़ का इस्तेमाल करना खुशामद होगी, जो हमें गवारा नहीं ....जो बात हुई ही नहीं, उसे कैसे दर्ज कर दें और वह भी अपनी डॉयरी में, अखबार का पता ही हमें मुंबई से १०० किलोमीटर दूर जने पर चला..वैसे हमने कल २१ मई २०२३ का अखबार संभाल कर रख लिया है ..सोविनर की तरह ...😄... मुंबई में भी धाक जमाने के लिए दैनिक भास्कर को ज़रूरत होगी बहुत मेहनत करने की ...नीचे एक फिल्मी गीत में एक बालक किस तरह से अपना अखबार बेचने के लिए कितनी मशक्कत कर रहा है...दैनिक भास्कर को भी ऐसे ही इस महानगर के जन-मानस के दिलो-दिमाग में जगह बनानी होगी ....क्योंकि अब हम भी तो इस महानगरी की रग पहचानते हैं ....ज़्यादा नहीं तो थोड़ी सी सही। 

और जिस काम के लिए बोइसर गया था उस आशियाने की खिड़की से भी एक नज़ारा देखिए...एक बार तो लगा कि यहीं रूक जाऊं..क्या करना है वापिस उस कंकरीट के जंगल में जाकर ....फिर पापी पेट का ख्याल आ गया जो कमबख्त भरने का नाम ही नहीं ले रहा 😁😎😇...!!

बोइसर के टाटा होम्स के जिस आशियाने को देखने गया था, वहां से बाहर का मंज़र कुछ ऐसा दिख रहा था ...

डा प्रवीण चोपड़ा 
मुंबई 

भारतीय रेल.....ज़िंदगी के साथ भी, ज़िंदगी के बाद भी!

1970 के दशक के शुरुआती साल ...हम बच्चे थे, छोटे ....😎 लेकिन अपनी कॉलोनी की एक महिला की बहादुरी का एक किस्सा सुना करते थे अकसर...बार बार ......